Monday, February 25, 2008

आस्तिक और नास्तिक -1


जब बिटिया ने कल पूछा ,कि डेडी क्या वाकई भगवान् होते हैं ? तो मेरे पास कोई सीधा उत्तर नहीं था। वास्तव में किसी के पास भी नहीं है। हो सकता है शायद आपने भी जिंदगी में कभी न कभी यह प्रश्न किसी से पूछा हो ... क्या भगवान जैसी कोई चीज़ है ? what is God ? etc...
जैसा शायद मेरे बचपन में भी हुआ हो तो मैंने भी बेटी को सीधा जवाब न देकर उससे पूछा क्यों बेटा क्या हुआ ? ... जरा इस बात पर आप ध्यान देना॥ जब भी कोई छोटा बच्चा हमसे पूछता है कि क्या भगवन है ? तो हमारी पहली रीअक्शन होती है कि क्यों भाई क्या हुआ ... अर्थात परोक्ष रूप में ... क्या जरुरत पड़ गयी भगवान की ? निश्चित ही कोई समस्या आई होगी जो बच्चा भगवान की बात कर रहा है! हम सीधा उत्तर न देकर बच्चे के मन को पकड़ना चाहते हैं। और इससे भी बढ़कर सत्य बात है की वास्तव में शायद ही कोई हँसता खेलता बच्चा यह पूछता हो कि भगवान क्या होता है ? भगवान् की जरुरत १०० में से ९९ बार किसी दुखी बच्चे (और शायद बड़े को भी ) को होती है । मेरी बेटी ने भी जो बताया उसका सार यही था कि उसकी सहेली अपनी माँ की अपेक्षाओं से परेशान है।साथ ही ये भी कि उसका भाई तो हँसते खेलते अच्छे नम्बर ले आता है जबकि वो कोशिश कर कर भी अच्छे नम्बर नहीं ला पाती । जब चाहे जाने अनजाने comparison हो ही जाता है। कभी कभी उसका बहुत दूर कहीं जाने को मन करता है। इसी मन:स्थिति में उसने पूछा था कि क्या भगवान् होते हैं?
क्या आपने भी कभी ध्यान दिया कि जीवन के किस मोड़ पर आप आस्तिकता या नास्तिकता की ओर बढे ? आस्तिक जो कहता है कि ईश्वर है और नास्तिक जो कहता है कि नहीं है दोनों का ही ईश्वर से प्रथम परिचय अपने सामाजिक परिवेश में ही होता है। तीन प्रकार के लोग आस्तिक हो जाते हैं। पहले तो वे जो अपने घर परिवार से जो ग्रहण कर लेते है जीवन उन मान्यताओं के लिए कोई प्रबल चुनौती उत्पन्न नहीं करता । दुसरे वे जो 'अकस्मात् ही इस बुद्धि योग को प्राप्त हो जाते हैं' (श्री कृष्ण से साभार) । और तीसरे वे जो वास्तव में बहुत आस्तिक तो नहीं होते परतु इस पोसिशन से पंगा भी नहीं लेना चाहते। थोड़ा बहुत सिर झुकाने में क्या जाता है ... संसार भर कह रहा है तो शायद ईश्वर हो ही .... उनकी ये स्थिति होती है।
दूसरी ओर नास्तिकता के भी अपने प्रकार हैं। अक्सर जो प्रबल आत्मविश्वासी होते हैं और तर्क से चलते है वे नास्तिक पाए जाते हैं। दुसरे वे जो बचपन में ही rebelous प्रवृत्ति को प्राप्त हो जाते हैं और बाद में इसी को अपनी identity बना लेते हैं , उन्हें ईश्वर जैसी किसी चीज़ को स्वीकार करने में भी मुश्किल होती है । फ़िर न मानने में ... समाज में स्थापित मान्यताओं से अलग होने का सुख भी होता ही है। ..... आगे जारी है.....

1 comment:

Dr Parveen Chopra said...

बहुत अच्छा लिखते हैं - दिल खोल कर। ळिखते रहिए.....बस ऐसे ही लिखते लिखते हिंदी में लिखने का अभ्यास हो जाता है. मेरी बलोग पर आने के लिए शुक्रिया....मैं भी कभी कभी इगलिश मे टिपप्णी देने में बड़ा आलस कर जाता हूं. और हां, इस वर्ड वेरीफिकेशन को नीचे से हटा दिजीए.. इसलिए कह रहा हू ंक्योंकि मुझे भी कुछ दिन पहले ही पता चला है ,इसलइेमैंने भी कछ दिन पहले ही हटाया है ,
शुभकामनाएं