तीसरे प्रकार के नास्तिक वो होते है जिन्हें जीवन में इतनी बार फरेब और निराशा हाथ लगती है, इस दुनिया का जिसे हम काला पक्ष कह सकते हैं , उससे इतनी बार सामना होता है कि भगवान को अफोर्ड करने की हिम्मत नहीं रह जाती।
लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूँ की ईश्वर का प्रश्न एक "अ-प्रश्न " है क्योंकि जब तक समस्त मान्यताएं न छूट जाएं, जब तक सारे कांसप्ट्स , सारा तथाकथित ज्ञान जो बचपन से आज तक तुम्हें मिला है , न छूट जाए , जब तक तुम इस सम्पूर्ण ज्ञान के होते हुए भी उससे एकदम अछूते रहने में सक्षम न हो जाओ (एकदम छोटे बच्चे जैसे) तब तक आस्तिकता या नास्तिकता का विवाद सिवाय एक बौद्धिक विलास के अलावा कुछ नहीं है । वास्तव में तो एक अच्छा नास्तिक ही सच्चा आस्तिक है क्योंकि कम से कम वो ख़ुद की और जो दुनिया वो बनाता है उसकी जिम्मेदारी तो लेता है। वो उन आस्तिकों से तो हज़ार गुने बेहतर है जो जितने आस्तिक हैं नही उतना अपने आप को दिखाते हैं।
ईश्वर का प्रश्न "अ-प्रश्न" इसलिए है क्योंकि सत्य मान्यता रहित है। किसी भी मान्यता के अतंर्गत सत्य नहीं आ सकता। किसी भी मान्यता का होना ही उसके opposite पर निर्भर करता है। दिन का होना रात के होने पर निर्भर करता है । जीवन का होना मृत्यु पर निर्भर करता है। सत्य का होना असत्य पर निर्भर करेगा.... और ईश्वर का .... निशित ही शैतान पर। जैसे ही सत्य किसी भी मान्यता की जद में आएगा वो सत्य नहीं रह जायेगा , निरपेक्ष नहीं रह जायेगा॥ क्योंकि कहीं न कहीं उस मान्यता का opposite खड़ा हो जाएगा।
तो जो सब से पहले था जो किसी भी तरह के कांसेप्ट के पहले था वोही "ईश्वर" है। और यदि कहो की सब से पहले "कुछ नहीं " था तो "कुछ नहीं " ही ईश्वर हो जाएगा। फिर चाहे उसे अनंत कह लो , अनादी कह लो, अजन्मा कह लो, अखंड कह लो.... बल्कि सब से अच्छा तो है कि कुछ मत कहो और मौन रह जाओ । इसीलिए जब कोई बुद्ध से भी पूछता की ईश्वर क्या है तो वे एकदम मौन रह जाते .... कुछ कहा और गड़बड़ हुई,.....
लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूँ की ईश्वर का प्रश्न एक "अ-प्रश्न " है क्योंकि जब तक समस्त मान्यताएं न छूट जाएं, जब तक सारे कांसप्ट्स , सारा तथाकथित ज्ञान जो बचपन से आज तक तुम्हें मिला है , न छूट जाए , जब तक तुम इस सम्पूर्ण ज्ञान के होते हुए भी उससे एकदम अछूते रहने में सक्षम न हो जाओ (एकदम छोटे बच्चे जैसे) तब तक आस्तिकता या नास्तिकता का विवाद सिवाय एक बौद्धिक विलास के अलावा कुछ नहीं है । वास्तव में तो एक अच्छा नास्तिक ही सच्चा आस्तिक है क्योंकि कम से कम वो ख़ुद की और जो दुनिया वो बनाता है उसकी जिम्मेदारी तो लेता है। वो उन आस्तिकों से तो हज़ार गुने बेहतर है जो जितने आस्तिक हैं नही उतना अपने आप को दिखाते हैं।
ईश्वर का प्रश्न "अ-प्रश्न" इसलिए है क्योंकि सत्य मान्यता रहित है। किसी भी मान्यता के अतंर्गत सत्य नहीं आ सकता। किसी भी मान्यता का होना ही उसके opposite पर निर्भर करता है। दिन का होना रात के होने पर निर्भर करता है । जीवन का होना मृत्यु पर निर्भर करता है। सत्य का होना असत्य पर निर्भर करेगा.... और ईश्वर का .... निशित ही शैतान पर। जैसे ही सत्य किसी भी मान्यता की जद में आएगा वो सत्य नहीं रह जायेगा , निरपेक्ष नहीं रह जायेगा॥ क्योंकि कहीं न कहीं उस मान्यता का opposite खड़ा हो जाएगा।
तो जो सब से पहले था जो किसी भी तरह के कांसेप्ट के पहले था वोही "ईश्वर" है। और यदि कहो की सब से पहले "कुछ नहीं " था तो "कुछ नहीं " ही ईश्वर हो जाएगा। फिर चाहे उसे अनंत कह लो , अनादी कह लो, अजन्मा कह लो, अखंड कह लो.... बल्कि सब से अच्छा तो है कि कुछ मत कहो और मौन रह जाओ । इसीलिए जब कोई बुद्ध से भी पूछता की ईश्वर क्या है तो वे एकदम मौन रह जाते .... कुछ कहा और गड़बड़ हुई,.....
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