Sunday, February 24, 2008

नीत्शे कहता था !


नीत्शे बुध्ध को लेकर आक्रांत था। वो कहता था : कुछ लोग अपने अन्दर एक पशु जैसा पाले रहते हैं। वे अपने आप को उससे नुच्वाते रहते हैं और ख़ुद को लहूलुहान करवाते रहते हैं । जिन्दगी के तमाम फैसले फिर इसी पशु की उदर्पुर्ती के लिए होते हैं चाहे प्रकट तौर पर भले ही वे उसे आध्यात्मिक भूख जैसा कोई नाम दे दें। तुम इससे सावधान रहना !
एक मरे हुए आदमी को देख कर कह उठना की जीवन "असार" है , जरा सी बीमारी में सोच लेना कि जीवन "यातना" है ... तुम सावधान रहना ! इन मृत्यु के प्रचारकों को बहुत जल्दी सुनने वाले मिल जाते हैं, तुम जरा बचना।
नीत्शे कहता था कि 'ईशवर' का आविष्कार कमज़ोर मानसिकताओं ने किया है।
और मैं तुमसे कहता हूँ कि नीत्शे सही था। वाकई 'ईश्वर' जैसी अवधारणा मानव की कमज़ोर मानसिकता का प्रतिफलन ही है। चर्चिल को , लेनिन को, मार्क्स को या स्तालिन को भी ईश्वर कि जरुरत नहीं है।यह बिल्कुल सम्भव है की ईश्वर का अविष्कार कमजोरों ने ही किया हो। वास्तव में ऐसा ही होना चाहिए। लेकिन मूल प्रश्न ये नहीं है! ये बहस की ईशवर कमजोरों ने खोजा है या पाखंडियों ने, हमे एक और गहरे सवाल से divert करती है । और वो गहरा सवाल ये है की वे कौन से कारन हैं जिनकी वजह से कुछ मान सिक्तएं सुद्रद होती है जबकि कुछ कमजोर।
Why & how certain people succumb to the so called force of Evil, yet, certain others are there who are able to overcome those very evil tendencies.. (M.K. Gandhi is one of the known historical examples.)
यदि आप इसके लिए मनोविज्ञान की गहन खोजों में जाते हैं तो ऊपरी कारणों के उत्तर तो मिलते हैं और निश्चित ही मिलते हैं लेकिन अन्तिम प्रश्नों को लेकर फिर तमाम मनोवैज्ञानिक खोजें भी छोटी पड़ जाती हैं।
और उस अन्तिम प्रश्न का उत्तर ये है की जगत स्वचालित नियमों से बंधा हुआ है। सृष्टि एक परस्पराव्लाम्बित निकाय है। इसमें जो कहीं एक जगह होता है वो तुरंत ही कुछ दूसरी जगह निर्धारित कर देता है। कोई ईश्वर इस नियम में कोई फेरबदल नहीं कर सकता। और यदि इस नियम को एक पहलू से देखा जाए तो ये बहुत बड़ा वरदान है, यह बहुत सुद्रद न्याय है। और इसे ही अगर दूसरी तरह से देखें तो ये बहुत अन्यायपूर्ण मालूम पड़ता है जैसा की नीत्शे को लगा। इसलिए मैं आप से कहता हूँ की प्रश्न ईश्वर का नहीं है प्रश्न दृष्टि के निर्मल होने का है।
बुद्ध ने सिर्फ़ इतना ही नहीं कहा की "दुःख" है बल्कि ये भी कहा की "दुःख" का कारन है और उससे भी बढ़कर ये की उस कारन को दूर किया जा सकता है। ये अपने आप में ही एक आशा की किरण है। यह हमारे rational mind को आश्वस्त भी करता है। क्योंकि यदि बिना कारन ही , just as a matter of chance, someone has misery & others luxury, तो फिर इससे बढ़कर अन्यायपूर्ण और अतार्किक क्या होगा?
परन्तु संसार बिल्कुल न्यायपूर्ण है। थोड़े से धैर्य और थोडी सी खोज की भर जरुरत है। The pains that are yet to come , can be avoided ,, that is probably single most hope...

3 comments:

मनीषा पांडे said...

मेरे ब्‍लॉग पर दिए आपके लिंक के सहारे यहां तक पहुंची। अच्‍छा ब्‍लॉग है और अच्‍छा लिखा है।

SACHIN CHANSARKAR said...

A very good comparison between the modern western psychological thinker & sanatan eastern dharma. If I am not wrong Nitshe committed suicide !& Buddha got enlightment. Although many of us does not understand what is it? But at least we can understand the smile on Buddha's face a deep love in Buddha's eyes & deep silence when we see the photographs. some thing amazing Buddha has, which is very rare to see.

Unknown said...

Dear Sachin,
Yes, Neitsche lived & died very painfully. In the last years of his life he lost his mind. Thats what I mentioned in my book, such a talented philosopher... but God is not understood through Mind but He is achieved through 'Doing'. Neitsche always wanted to find Or devise a Superman who is free of All the Fears of this world. By a queer contrast however The Buddha achieved such Supermanhood.
That's Buddha' Last messgae: Enlightenment is the End of all Suffering, all Fear.